एक साधारण इंसान बने रहना इतना भी आसान नहीं होता है। कुछ बातें थोड़ा सा होंठ हिलाकर बस कह देनी होती हैं मगर कहा नहीं जाता। मन के भीतर शब्द हिलोरे मारते हैं गोया अगले ही पल बाहर आने को तैयार। लगता है जैसे बस कह डालो और मन हल्का कर लो। मगर होंठ हैं की खुलते ही नहीं..... ऐसी परिस्थिती में इंसान अपने आप को कितना बेबस महसूस करने लगता है...... क्यूँ ऐसा नहीं होता कि बिना परिणाम की चिंता किए जो मन में आए बेझिझक कह दो, और फिर हल्के मन से सरल, सीधी ज़िंदगी जीने लगो।
अब जब भीतर का शोर एक द्वन्द में उलझ कर रह जाता है तब भावों को ज़ुबानी तौर से अभिव्यक्त करना कठिन हो जाता है। ऐसे में बेहतर होता है कि अपनी सारी उलझने कलम उठा कर कागज़ पर उतार दी जाएँ। फिर चाहे उन्हें कविता की शक्ल मिले, कहानी की या फिर संस्मरण की।
कुल मिलाकर तय ये हो जाता है कि कविता कहानी आदि, न बोल पाने की बेबसी से निकली अभिव्यक्तियाँ होती है। या फिर मन का कोई भाव जो सीधे तरीके से बाहर नहीं आ पाता है। तब चुप्पियाँ सन्नाटे से ऊंची हो जाती है। अमूमन ऐसा जरा मुश्किल ही होता है।
मुझ जैसे तो केवल चुप्पियाँ बुनना ही जानते हैं.......अनंत काल तक......... बेहिसाब.........