Friday, July 6, 2012

चाँद तुम कहाँ थे उस रात


रात अचानक घबरा का जाग उठी थी, शायद कोई बुरा ख्वाब देखा था। अँधेरे में ही पास रखे मोबाईल में वक्त देखा, रात के ३.१५ हुआ था। अब तो बहुत घंटों तक नींद नहीं आयेगी। सोचा बाहर लॉन पर चली जाती हूँ....खुली हवा में टहलना हमेशा मेरा मन बहला देता है। 

घुप्प स्याह रात, जून माह की पहाड़ों की हल्की ठंडी रात, रह- रह कर बदन सिहर उठता था, अपनी ही बाँहों में सिमट जाती हूँ। झींगुर अब भी प्रहरी से सम्वेत स्वरों में अपने गीत आलाप रहे थे। सुनसान, चांदनी रहित अंधेरी रात, कोशिश करती हूँ सपने को याद करने की। कुछ याद नहीं आता..बस एक भाव पीछे रह जाता है। सपने भी निराले होते हैं...कुछ खुशी से भर देते हैं तो कुछ उदासी में लपेट लेते हैं। चाँद की उम्मीद में कुछ उदास मन से आकाश की तरफ देखती हूँ। चाँद दीखता तो एक कविता बन जाती।

उस रात सिर्फ कुछ यादों को दोहराने के अलावा और कुछ किया भी नहीं जा सकता था। दूर कहीं पर लाल अंगारा जलता बुझता दीख रहा था।  सो उसे ही गौर से देखने लगी। फिर लाल रोशनी में एक इंसानी साया सा दिखा। शायद कोई सिगरेट पी रहा था। अब ठण्ड के बावजूद भी घबराहट से माथे पर पसीना महसूस करती हूँ। जल्दी से उठकर अन्दर चली जाती हूँ और दरवाजा बंद कर लेती हूँ। किचन की तरफ बढ़ती हूँ, शायद एक बड़ा मग चाय का सुकून दे जाये। 

चाय बनने तक उत्सुक मन से फिर से खिड़की से झांक कर एक बार उधर देखती हूँ। अब भी सिगरेट के पीछे किसी इंसान का आभास हो रहा था, इतने बड़े संसार में कोई और भी है जो जागा हुआ है। 

अब ये सोच कर चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट छा जाती है की दुनिया में मैं ही अकेली बेचैन आत्मा नहीं हूँ। यादों की कसक के साथ अब चाय पीना अच्छा लगने लगा। 

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...