Thursday, July 16, 2009

तुम सीता बनना



उन दिनों रामलीला का एक अलग आनंद होता था चैपाइयों में संवाद होते थे ।
सभी अपनी पंक्तियाँ कंठस्थ करते और फिर मधुर स्वर में गाते थे ।

तब मैं पाँच वर्ष की थी , एक बार इजाज़त मिली रामलीला देखने की ....कुछ सहेलियां ,दादी और पारिवारिक सदस्य । लक्ष्मण मूर्छा का दृश्य था..... वो नीचे मुर्छित पड़े थे और राम विलाप कर रहे थे । उनके उस करुण विलाप से हमारी आँखों में अश्रु भर आते थे ...

तभी बड़ा सा द्रोनांचल पर्वत लिए भरमाये हुए विशालकाय हनुमान का प्रवेश हुआ .....उनकी लायी संजीवनी बूटी से लक्ष्मण सचेत हो गए , और सभी ने खुश हो कर खूब तालियाँ बजाई। तब से हनुमान मेरे लिए दुनिया के सबसे बहादुर एवं आदर्श चरित्र हो गए ।

मैंने माँ से आग्रह करके उनकी बहादुरी की कई और कहानियाँ सुनी.... और फिर सहेलियों से उसकी चर्चा करती थी ... कैसे उन्होंने इतना विशाल समुद्र लाँघ कर सीता को बचाया या फिर अपनी पूँछ से अहंकारी रावण की सारी लंका को जला दिया था ।

उन दिनों जब कभी कोई मुझसे पूछता।

"बड़ी होकर क्या बनोगी?"

तो मेरा सहज और गर्वित उत्तर होता था

"मैं हनुमान बनूँगी"

सभी मेरी इस बात पर खिलखिलाकर हँस देते और मैं रुआंसी होकर माँ से शिकायत करती थी। भी मेरी बात पर मुस्कराती और कहती थीं।

"लड़कियाँ हनुमान नही बनती , सीता बनती ....हैं इसलिए तुम सीता बनना "

लड़कियों को सीता का और लड़कों को राम का आचरण करना चाहिए इस बात पर उनका अटल विश्वास था।

मेरी मायूसी यथावत बनी रहती ... पता नही क्यों पर मैं सीता कभी नही बनना चाहती थी उनका वो रूप - ऋगार , चमकीले वस्त्र व गहने भी मुझे कभी आकर्षित नही कर पाए........ वो राजकुमारी थीं लेकिन राजकुमारी जैसा कोई वैभव नहीं था , ज्यादा समय दुख ही उनका भाग्य था आँसू ही उनके साथी ...तब मेरा बाल मन द्रवित और परेशान हो जाता था उनके आंसुओं को देख कर ........

सीता का वन प्रस्थान ,रावण द्वारा हरण, अग्नि परीक्षा व ऋषि बाल्मिकी के आश्रम में निष्कासन उस समय भी मेरे बाल मन को उद्वेलित कर जाता था .......

फिर कभी रामलीला जाने की इजाज़त तो नही मिली पर समय - समय पर रामायण की कहानियाँ सुनती रही थी।

आज के परिवेश में भी हनुमान बनना ही उचित जान पड़ता है ....किसी को किसी भी रूप में जीवन दान कर पायें , किसी का दुख दूर कर सकें , बुराईयों व कुरीतियों का बहिष्कार कर पायें तो समझो जीना सार्थक हुआ ।

आज की सीता पर समाज का निर्दयी प्रहार जो उसका कोख में आने मात्र से ही शुरू हो जाता है , देखकर मन अवसादित हो जाता है । दबाई गयी ,सताई गयी ,जलाई गयी ,दहेज़ प्रथा की कुरितियो से प्रताड़ित व भेद-भाव पूर्ण व्यवहार से कुंठित सीता को देख कर मन द्रवित हो तीव्र वेदना से भर उठता है ........

और माँ के ये शब्द बड़े बेमाने लगने लगतें हें ....

" लड़कियाँ हनुमान नही बनती सीता बनती हैं इसलिए तुम सीता बनना "



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