"दूसरों के गुणों की तरफ देखो और अपने दोषों की तरफ।" माँ हमेशा कहती है।
"तो माँ, कुल जमा ये कि सारी दुनिया बेहद अच्छी और मैं ??" माँ हंस देती है। इस फ़लसफ़े से तो मैं हमेशा अपने आप को दोषों से परिपूर्ण ही देखती रहूं।
" माँ केवल हंस कर बात मत टालो। क्या सच में मुझे अपने आप को इसी नज़र से देखना चाहिए? आजकल इस कलयुग में कहते हैं अपने आप से प्यार करो अपनी इज़्ज़त करो तभी दुनिया का रुख भी तुम्हारे प्रति अच्छा रहेगा ? ऐसा। "
" हे ईश्वर कौन कहता है ऐसा..?" माँ असमंजस में दिखी।
" सब कहतें हैं मदरलैंड। "
"कौन सब ?"
" माँ तुम सतयुग की बात कर रहे हो। आजकल अपने को गुणवान और दूसरों को गलत और बुरा समझना चाहिए। ऐसा रिवाज़ है, और वो ही ठीक है। "
"हाय.. ऐसा कब से हो गया ? ऐसा कभी भी नहीं होता। पता नहीं कहाँ सुनके आती है ऐसा गन्दा। छी...बेकार हुयी तू सच्ची। माँ स्तब्ध।
"कतई बेकार हुए यार माँ मैं। सभी कहते हैं। "