'अब के बरस भी देखेंगे हम सावन भीगी आँखों का/अब के बरस भी तन्हाई के बादल अपने सर पर हैं।'
मेरे लिए शंभू राणा कोई बेहद चर्चित नाम नहीं था। फिर उनकी पुस्तक 'माफ़ करना हे पिता' पढ़ते हुए गज़ब का आनंद आया। बेहद रोचक, अपने तरह की निराली।
शंभू राणा उत्तराखंड के एक सरल, सच्चे, दो टूक बात करने वाले लेखक हैं। उनका बचपना देहरादून से होते हुए फिर अल्मोड़ा में जाकर जवान हुआ। इसलिए अधिकांश किस्से अल्मोड़ा के ही हैं। पुस्तक के पीछे उनके परिचय में बिंदास लिखा है। शिक्षा - आठवीं तक। बेशक उन्हें पढ़ते हुए ऐसा लगा नहीं। ऐसा लगा उन्होंने साहित्य पढ़ा और गुना हुआ है।
वे समाज को निर्विकार भाव से देखते, समझते, झेलते और जीते रहते हैं। अपने सकारात्मक रवैये के रहते हर बात में मजे और आनंद ढूंढ लेते हैं। उनका अपना जीवन कष्टों और परेशानियों से होकर गुजरा है फिर भी कडुवाहट और तल्खी के बदले दुनिया को देखने का इतना सकारात्मक रवैया और हौसला विरले ही देखने को मिलता है। उनका यह पहला संग्रह है। इस पुस्तक में उन्होंने अपने बचपन से लेकर अब तक के तमाम तरह के अनुभवों को कलमबद्ध किया है। उनके वाक्य विन्यास गुदगुदाते हैं और तथ्यों को पढ़ते हुए हम उस समय के साथ विचरने लगते हैं।
इस पुस्तक में उन्होंने अपने पिता को याद करते हुए बहुत कुछ लिखा है। जैसा की अमूमन होता है लोग जीते जी जो भी करें परन्तु मरणोपरांत झूठ का जामा पहना कर श्रद्धांजलि स्वरूप अच्छा ही लिख देते हैं। मैंने भी कुछ इसी आशा से पढ़ना शुरू किया था। परन्तु पुस्तक की पहली पंक्ति पढ़ते ही मैं अचानक चौंक गई। ये क्या लिखा है? पिता के लिए भला ऐसा कौन लिखता है? दृष्ट्व्य है-
इस पुस्तक में उन्होंने अपने पिता को याद करते हुए बहुत कुछ लिखा है। जैसा की अमूमन होता है लोग जीते जी जो भी करें परन्तु मरणोपरांत झूठ का जामा पहना कर श्रद्धांजलि स्वरूप अच्छा ही लिख देते हैं। मैंने भी कुछ इसी आशा से पढ़ना शुरू किया था। परन्तु पुस्तक की पहली पंक्ति पढ़ते ही मैं अचानक चौंक गई। ये क्या लिखा है? पिता के लिए भला ऐसा कौन लिखता है? दृष्ट्व्य है-
"सभी के होते हैं मेरे भी एक पिता थे। शिक्षक दिवस 2001 तक मौजूद रहे। उन्होंने 70 -72 वर्ष की उम्र तक पिता का रोल किसी घटिया अभिनेता की तरह निभाया मगर पूरे आत्मविश्वास के साथ।"
अब ऐसा नहीं कि पिता और उनका 32 वर्षों का साथ बेकार गुजरा। माँ बचपन में ही गुज़र गईं थीं। इसलिए उन्होंने पिता के मित्रवत साथ को सराहा है, उनसे बहुत कुछ सीखा है, उनके आदर का ध्यान रखा है। वे आगे लिखतें हैं-
"मैं एक आदर्श बेटा नहीं था परन्तु 'राग दरबारी' का छोटे पहलवान भी नहीं हो सकता था। बचपन की एक धुंधली सी याद है। मैं बीमार था, पिता ऑफिस से हड़बड़ी में घर आकर मुझे कम्बल में लपेट कर डॉक्टर के पास ले गए। फिर माँ को बताया - डॉक्टर कह रहा था आधा घंटा देर हो जाती तो बच्चा गया था हाथ से।' उस दिन तो बच्चा हाथ आ गया पर फिर कभी उनके हत्थे नहीं चढ़ा।"
अब ऐसा नहीं कि पिता और उनका 32 वर्षों का साथ बेकार गुजरा। माँ बचपन में ही गुज़र गईं थीं। इसलिए उन्होंने पिता के मित्रवत साथ को सराहा है, उनसे बहुत कुछ सीखा है, उनके आदर का ध्यान रखा है। वे आगे लिखतें हैं-
"मैं एक आदर्श बेटा नहीं था परन्तु 'राग दरबारी' का छोटे पहलवान भी नहीं हो सकता था। बचपन की एक धुंधली सी याद है। मैं बीमार था, पिता ऑफिस से हड़बड़ी में घर आकर मुझे कम्बल में लपेट कर डॉक्टर के पास ले गए। फिर माँ को बताया - डॉक्टर कह रहा था आधा घंटा देर हो जाती तो बच्चा गया था हाथ से।' उस दिन तो बच्चा हाथ आ गया पर फिर कभी उनके हत्थे नहीं चढ़ा।"
"मैं इस खयाल से सहमत नहीं कि माँ -बाप के ऋण से कोई उऋण भी हो सकता है। क्या यह किसी लाले बनिए का हिसाब है? क्यों न उनका हमेशा ऋणी रहा जाय और एक देनदार की हैसियत से खुद को छोटा महसूस करते रहें। माँ की प्रसव पीड़ा और पिता का दस जिल्लतें झेल कर परिवार के लिए दाना -पानी जुटाने का मोल तुम चुका सकते हो नाशुक्रों, कि उऋण होने की बात करते हो?" उनके तंज बेहद मारक, व्यंग सटीक और हास्य ठठाकर हंसने पर मजबूर कर देते हैं। कुछ अन्य बानगियां।
"हर बार शादियों के सीजन में शहर से कुछ परिचित चेहरे वाली अपरिचित लड़कियां अचानक गायब हो जातीं। कई दिनों तक आंखें उन्हें भीड़ में तलाशती रहतीं हैं। लगता है गईं होंगी कहीं रिश्तेदारी में, आ जाएंगी। फिर एक दिन कोई बताता है- यार उनका तो बैंड बज गया। वे सात चक्कर गोल घूमी और शहर वीरान कर गईं। तुम उन्हें यहाँ तलाश रहे हो और वे वहां ससुराल में मुंह दिखाई वसूल रहीं हैं..."
"शादी ब्याह में भला क्या गंभीर होना। शादी में लड़की का बाप सीरियसली गंभीर होता है और दूल्हा -दुल्हन को गंभीरता ओढ़नी पड़ती है। बाकियों को शोभा नहीं देती। बारातों में भले-भले गंभीरों को उचक्कापन करते देखा जा सकता है। बारात और होली छिछोरेपन के दो मुख्य भारतीय पर्व हैं..मत चूको चौहान।"
"जिन लड़कों की नई -नई शादी होती है वे अचानक संत हो जाते हैं। शराब, सिगरेट, गुटका, सब बंद, बस चाय। उन दिनों उनके पास दोस्तों के लिए भी समय नहीं होता। लेकिन कुत्ते की दुम कितने दिन सीधी रह पाती है। एक दिन गुटका चबाते हुए कहते हैं। 'पता नहीं पनवाड़ी ने क्या थमा दिया, सादा है, तम्बाकू नहीं है इसमें। मुंह का स्वाद जरा अनप्लेजेंट जैसा हो रहा था।' फिर कुछ दिन बाद जिन, वोदका, बीयर या कोई फ्लेवर्ड दारु पीकर कहता है -'वो दोस्तों ने शादी की पार्टी ले ली। ज़िद करने पर बस चखी थी।' एक बार जो चखी तो फिर वह अक्सर चखने लगता है।"
'इधर प्रेम विवाहों का आंकड़ा बढ़ा है शादी होते ही लव स्टोरी का समापन हो जाता है। किसी भी सफल प्रेम कथा पर आज तक न कविता लिखी गयी न नाटक और न महाकाव्य। सर्वमान्य तथ्य है संसार में वही प्रेम कथाएं अमर हैं जो वास्तव में असफल रहीं। शादी होती तो हीर रांझे से पिट रही होती। "मैं ही पागल थी, तुम में न जाने क्या देख लिया। एक से एक रिश्ते आ रहे थे..." कहती हुई एक दिन खामोश हो जाती, फिर कोई हीर नहीं गाता।
'मरने के बाद लोग मरने वाले की इतनी और ऐसी ऐसी तारीफें करते हैं कि सुन कर कई बार मर जाने का बड़ा मन करता है कि हाय लोग मेरे बारे में कितने ऊंचे और अच्छे विचार रखतें हैं। मैं उन्हें यूँ ही कमीना समझता रहा..हम बेखुदी में जिये चले जाते हैं। हमें पता ही नहीं चलता कि हम कितने महान हैं और हम में इतनी खूबियां हैं। दरअसल जीते जी हमें कोई बताता भी तो नहीं।' पुस्तक में इसी तरह के अनेकानेक गुदगुदाते पल संजोए हुए हैं।
'लंगर मैं कैसे डाल दूँ तूफां के ख़ौफ़ से/ये कश्ती जहाँ लगेगी वो साहिल ही और है'
लेखक 'रहबर' के वे बड़े प्रशंसक हैं। उनका कहना है रहबर को आलोचना की नीयत से ही सही जरूर पढ़ना चाहिए। रहबर अपने वक्त के प्रति बेहद ईमानदार रहे। उन्होंने स्याह को स्याह और सफ़ेद को सफ़ेद कहा। रहबर की ईमानदारी पर उनके दुश्मनों तक को शक नहीं। ताज़िंदगी रहबरी का हक़ अदा किया। तेजी से बिला रही पत्र लेखन विधा को याद करते हुए लिखते है।
"मत फाड़ना इनको कि जब अपनों से दिल घबराएगा, हौसला देंगी तुझे ये चिट्ठियां, रहने भी दे"
लेखक - शंभु राणा
प्रकाशक - नैनीताल मुद्रण एवं प्रकाशन सहकारी समिति / मूल्य -175 पेपरबैक
एकमात्र वितरक- अल्मोड़ा किताब घर, मॉल रोड, अल्मोड़ा -263601 (फोन- 05962, 230342 )