मासूम
गुनहगार सा
लुप्त हो गया कहीं
मेरी कविताओं का यौवन
न रही झरनों सी उच्छश्रृंखलता
न चपलता न यौवन की मादकता
न ही श्रृंगारित शब्दों की चमक
न प्रेम के लम्हों की कसक
अब न ढूंढ सकोगे इनमें
अबोध सौम्यता और
उद्दात उमंगें
अब
इनकी
उम्र बढ़ चली
अनुभव बढ़ लिया
जिम्मेदारियों के बोझ तले
थक कर यौवन विदा हो लिया
ठिठके हुए
बेजान से शब्द
गुमसुम हैं हैरां हैं
सोच कर ये भ्रमित हैं
किस दोराहे पर लाकर
उम्र ने इनको खड़ा कर दिया
कोरा था कागज जो कभी
उलझनों से भर गया
न वो ज़ज़्बा रहा
न संवेदनाएं
न भाव
न अभिव्यक्तियाँ
न मनुहार न शिकायतें
शब्दों के सम्मोहन से निकल
अब बहुत दूर हो गई कविता
न यौवन रहा न गीत रहे
महक नहीं न इत्र रहा
पराग झर गया
बहुत हो गया
कुछ कल कहा
कुछ आज कह दिया
चलो अब बहुत हो गया
कविता तुमको ये क्या हो गया