Saturday, November 22, 2014

मैं पल दो पल का शायर हूँ


​कुछ दिन पूर्व एक आलोचक महोदय का टेक्स्ट आया ​- "राजस्थान से एक आलोचक हूँ। स्त्री -पुरुष का भेद नहीं करता। इसलिए बख़्शी आप भी नहीं जाएंगी। 'कथाबिंब पत्रिका' में आपकी कहानी 'सर्पदंश' पढ़ी। हट कर कुछ नहीं था। आप ने भी अन्य महिला लेखिकाओं की ही तरह लिख दिया।"

टेक्स्ट के उत्तर में मैंने यह लिख कर इतिश्री कर दिया। -"अच्छा लिखा, उम्दा कहानी, जैसे टेक्स्ट और मेल पढ़कर चट जाती हूँ। जीवन में पहली आलोचना पढ़कर आनंदित हूँ। खूब धन्यवाद!"

शायद उन्होंने मुझे कुछ और सुनाना था या फिर उनके अंदर का आलोचक इतने मात्र से ही शांत नहीं हो सका होगा। शाम करीब आठ बजे उनका हैरानी भरा फोन आ गया। फ़ोन उठाते ही झट बोले। 

"आज तक किसी ने आपके लेखन की आलोचना नहीं की? इसका मतलब आपने अभी तक कुछ शानदार लिखा ही नहीं। आप अन्य महिला लेखिकाओं से अलग लिखिए।"

"कैसे लिखूं?"

"आप कुछ इस तरह के मुद्दों पर लिख सकतीं हैं, मसलन..." उन्होंने कुछ विषय सुझाए।   

"पुरुषों वाली सोच कहाँ से लाऊंगी? ऐसा तो मैं कतई पढ़ती भी नहीं, लिखूंगी खाक।"

"फिर कब लिखेंगी ऐसा?"

"शायद कभी नहीं। मेरी सोच वहां तक जाती ही नहीं। मेरी लेखनी मेरी कल्पनाओं के साथ खिलवाड़ करते हुए क्या गढ़ देती है वो मुझे भी बाद में मालूम पड़ता है। खैर आप मार्गदर्शन करते रहें, शायद कभी ऐसी कोई कहानी बन जाए।"

"अजी साहब! मैं आप का क्या मार्गदर्शन करूंगा, मैं तो अभी खुद एक विद्यार्थी हूँ।" वे हंस कर बोले।  

"कमाल है.. परन्तु  आवाज़ से तो आप उम्रदराज़ लग रहें हैं।" मैंने सपाट कहा। 

"अरे बुद्धू...वैसा विद्यार्थी नहीं…मेरे पास डॉक्टर की उपाधि है, कई पुस्तकें लिख चुका हूँ और कई सम्मान भी हैं मेरे खाते में। परन्तु सीखना चलता रहता है।"

"ऐसे विद्यार्थी तो सभी होते हैं। मेरे अनुसार जो ऐसा विद्यार्थी नहीं वह जड़ है, वह ज़िंदगी को जीता नहीं, ढोता है।"

"अब झटपट महिला सोच से अलग कुछ लिख डालिए। खुशी हुई आपसे बात करके।" फोन कट गया।  

मैंने सोचा क्या उन आलोचक महोदय को मेरे से बात करके सच में खुशी हुई होगी? मैंने ऐसा अच्छा लगने जैसा क्या बोला होगा? मेरी बालसखा 'अंजू' आज भी अक्सर मुझसे कह देती है। "मेरी जान, बचपन से देख रही हूँ, तुझे पुरुषों से ढंग से बोलने की तमीज़ कब आएगी?" 

"अब कब आएगी फिर? शायद कभी नहीं। प्रिय दोस्त मैं अभिशप्त हूँ इस तरह ढंग से न बोल पाने की तमीज़ के लिए।" 

इसके बाद मैंने नई कहानी लिखी 'रहमत चूड़ी वाला' जो 'जनसत्ता के वार्षिक अंक २०१४' में छपी है। अब…क्या होगा आगे...? वैसा ही कोई फोन आएगा। आलोचक का?या फिर पाठकों का?


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