सन्नाटा भी अजीब होता है। प्रेम से, चुपके से, दबे पैर, बेआवाज़ चला आता है। जब पसरता है तब दूर -दूर तक कुछ दिखाई नहीं देता। आँखें बंद कर के उसे महसूस किया जा सकता है। ये सन्नाटा इतना शोर क्यों पैदा करता है?
धीरे -धीरे ये शोर बढ़ता ही चला जाता है। दिल में तूफ़ान उठा देता है। एक ऊंचाई पर पहुँच कर सारे अस्तित्व को हिला कर रख देता है। तब भावनाओं का विस्फोट अपने चरम पर पहुँच जाता है। संवेदनाओं का समुद्र, ज्वार की तरह उठता है और सब्र का तट तोड़कर आँखों से बरस जाता है। तब सुकून की फुहारों से मन शिथिल होकर असीम शांति महसूस करता है।
धीरे -धीरे सब कुछ रौशनी से भर जाता है। मन मस्तिष्क दोनों ही आबाद हो जाते हैं। सारा वजूद शांत हो जाता है। परन्तु कुछ समय के बाद फिर से सन्नाटे की तरफ दौड़ने लगता है।
कैसी अंतहीन दौड़ है ये? अद्भुत होता है सन्नाटा और बेहद जरूरी भी। जीवन के किसी न किसी मोड़ पर हर किसी को इसकी जरुरत होती है।
यदि आज ओशो होते और मैं उनको ये सब बताती तो शायद वे कहते। "तुम्हें चलना चाहिए, सन्नाटे से साधना की ओर और साधना से प्रेम की ओर। तभी तुम्हारा उद्धार होगा…"
दुनिया का मेला है, खामख्वाह का झमेला है। मधुर गीत सुनना भी साधना है। बेग़म अख्तर और मल्लिका पुखराज को सुना जा सकता है।
वो कहते हैं रंजिश की बातें भुला दे
मोहोब्बत करें, खुश रहें, मुस्कुरा दें
मोहोब्बत करें, खुश रहें, मुस्कुरा दें