Saturday, February 2, 2013

जीवन एक केलाईड़ेस्कोप


उस
एक दिन 
पार्क की दूब पर 
नंगे पैर टहल रही थी 
कांच की किरच धंस गई पैरों में  
दर्द से कसकते हुए झुक कर निकाला 
सोचा किनारे पर बने कूड़ेदान में फेंक दूंगी 
कोई और दर्द से बचा रहे तो अच्छा 
हाथ में रख कर निहारा  
सुर्ख 
लाल किरच 
फिर हर सुबह पार्क में 
कुछ और किरचें इकठ्ठा करती हूँ 
सूरज की किरणों में चमकती झिलमिलाती  
सतरंगी आभा बिखेरती रंगबिरंगी दमकती किरचें 
सहेज 
कर रखती हूँ उन्हें 
पारदर्शी कांच के टुकड़ों में 
केलाईड़ेस्कोप बन गया अब 
 रोज देखती हूँ जीवन के सतरंगी सपने 
उसके अन्दर बनती सुन्दर आकृतियों की तरह

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