उस
एक दिन
पार्क की दूब पर
नंगे पैर टहल रही थी
कांच की किरच धंस गई पैरों में
दर्द से कसकते हुए झुक कर निकाला
सोचा किनारे पर बने कूड़ेदान में फेंक दूंगी
कोई और दर्द से बचा रहे तो अच्छा
हाथ में रख कर निहारा
सुर्ख
लाल किरच
फिर हर सुबह पार्क में
कुछ और किरचें इकठ्ठा करती हूँ
सूरज की किरणों में चमकती झिलमिलाती
सतरंगी आभा बिखेरती रंगबिरंगी दमकती किरचें
सहेज
कर रखती हूँ उन्हें
पारदर्शी कांच के टुकड़ों में
केलाईड़ेस्कोप बन गया अब
रोज देखती हूँ जीवन के सतरंगी सपने
उसके अन्दर बनती सुन्दर आकृतियों की तरह