Thursday, April 5, 2012

वो शाम कभी तो आएगी



मुझे मेरी ही खामोशियाँ 
अब नीरस लगने लगी हैं
मांगती हैं मुझसे ही
मेरे होने का प्रमाण 
थमा देती हूँ तब उनके हाथों में
वे सभी नज्में जो लिखी थी तब 
जब मेरे सपनों को लगे थे पंख 
उड़ान भरते पहुँच जाते थे हिमशिखरों पर 
बर्फीली हवाओं से जमे हुए ज़ज्बात  
खिल उठते थे मोगरा के फूल से 
चीड़ की खुश्बू लिए मादक हवाएं 
कोसी नदी की संगीतमय छलछलाहटें
सब मिलकर सजा देते थे उन भावों को 
जिन्हें शब्दों में कैद करना 
मेरे बस में नहीं था 
तब देवदार के तले बैठ कर सोचती 
वो सहर जब मुस्कुरायेगी  
वो शाम कभी तो आएगी 


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