Thursday, March 22, 2012

देवत्व से भरे मौन के पल ( Advaita Ashrama, Mayavati , Uttarakhand )

 मानसिक क्रिया कलापों के बाद की थकान को अकेले, अपने आप में शांत और मौन रह कर ही दूर किया जा सकता है, ऐसा मेरा फलसफा है। अपने इस अकेलेपन से मैं बेपनाह प्रेम करती हूँ.... प्रकृती के बीच, देवत्व से भरे मौन के पल और पूरी तरह से अपने आप में रचे बसे,खोये हुए। 
 तीन दिन पहले उत्तराखंड यात्रा से लौटते हुए रास्ते से थोड़ा विचलित होकर श्री राम कृष्ण मठ की एक शाखा अद्वैत आश्रम, मायावती ( जिला चम्पावत,उत्तराखंड ) में रात्री विश्राम का मन बनाया। 
 स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा से तथा उनके सन्यासी शिष्य स्वामी स्वरूपानंद और अंग्रेज शिष्य कैप्टन जे एच सेवियर और उनकी पत्नी श्रीमती सी ई सेवियर ने मिलकर १९ मार्च १८९९ में इस रमणीय स्थल मायावती की स्थापना की थी। 
 यह स्थान समुद्र तट से ६४०० फीट और टनकपुर रेलवे स्टेशन से ८८ किमी पर उत्तराखंड के चम्पावत जिले के अंतर्गत लोहाघाट नमक स्थान से अन्दर जंगल में ९ किमी पर है, अति घने देवदार, चीड़, बांज व बुरांश के जंगलों के बीच अपना अदभुत नैसर्गिक सौन्दर्य बिखेरता ये आश्रम अपनी अनुपम शांती के लिए मशहूर है। 
 स्वामी विवेकानंद सन् १९०१ में इस आश्रम में ३ से १८ जनवरी तक रहे। 
 १९०३ में एक धर्मार्थ हस्पताल की भी शुरुआत की गई, जहाँ पर आज भी गरीबों की निशुल्क चिकित्सा की जाती है। यहाँ एक गौशाला भी है जिसमें अच्छी नस्ल की स्वस्थ्य गायें हैं जिनके शुद्ध, स्वादिष्ट ढूध का स्वाद सुबह के नाश्ते के समय और शाम के भोजन के उपरांत ले सकते हैं। 
 १८९६ में स्वामी विवेकानंद ने "प्रबुद्ध भारत" नामक एक अंगरेजी पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था, आज भी ये पत्रिका यहाँ से हर माह प्रकाशित होती है। 
 स्वामी विवेकानंद जी की इच्छानुसार मायावती आश्रम में कोई मंदिर नहीं है इसलिए यहाँ किसी मूर्ति, चित्र अथवा प्रतीक की शास्त्रोक्त विधि से औपचारिक पूजा नहीं होती, शाम को सभी संतों की मधुर वाणी के साथ सुर मिलाकर सभी ने ४५ मिनिट तक संगीत वाद्यों के साथ राम नाम संकीर्तन का आनंद लिया,गेरुवे वस्त्रों में ढके सन्यासी बेहद सात्विक, सुमधुर वाणी और शांत चित्त वाले थे। 
 साथ ही यहाँ पर १९०१ में बना हुआ छोटा सा पुस्तकालय भी है। जिसमें अपने ज्ञान को बढ़ाते, शांती से बैठकर कई भाषा की पुस्तकें पढ़ी जा सकती है, सुकून से भरा हुआ पुराना कला शिल्प। 
 कर्नाटक के अति सौम्य, सरल, मृदुभाषी और पूर्णतया आश्रम को समर्पित स्वामी त्रिलोक्यानंद जी (जो यहाँ पर मैनेजर का भी कार्यभार सँभालते हैं) की विशेष कृपा से सब कुछ बेहद व्यस्थित और आनंदायक रहा। 
 सुबह ७ बजे फलों, दूध, व सात्विक, पौष्टिक  नाश्ते के बाद सन्यासियों के साथ २.५ किमी की हाईकिंग करनी थी जो ध्यान कुटीर तक होती है। गहन ध्यान के अदभुत पल। 
 ऐसे ही ध्यान के पलों के बाद अर्ध्य चेतन मन से सोच रही थी कितना अच्छा होता यदि यहीं हिमालय की गोद में इस असीम आनंद के पलों से बाहर ही ना निकला जाये और बस जाएँ यहीं सदा-सदा के लिए। 
.तभी ड्राइवर आ जाता है याद दिलाने के लिए कि भौतिक दुनिया में वापस जाने का समय हो गया है  ना चाहते हुए भी आश्रम से विदा लेती हूँ और भावातिरेक नम आँखों से कुछ दूर तक गाड़ी में अपने प्रिय संगीतकार किशोर कुमार के सुकून भरे नगमें सुनती हूँ। यूँ अंतहीन सड़कों का खूबसूरत सफ़र बना रहे। चलता रहे। 

" इन सड़कों पर चलते एक उम्र बीत जाती है / ये सड़कें ही अब हमसफ़र नज़र आती हैं" 

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