रविवार कभी भी इतना तकलीफदेह नहीं रहा। कैसा अजीब सा दिन था।.यूँ तो चारों तरफ गाड़ियों, इंसानों और मशीनों का खूब शोर था, परन्तु मैं इन सब से दूर थी जहाँ तक ये शोर पहुँच नहीं पा रहा था, या मुझे सुनाई नहीं दे रहा था.......भीतर दीमाग और दिल से उठता शोर, उसे मैं सुन रही थी। घुटन का सा भाव, सब कुछ धुंधलके में खोता हुआ, अस्पष्ट, अवर्णित। कभी सुर्ख सफेदी कभी घुप्प स्याह अँधेरा। आज की तारिख में डायरी में लिख देना चाहती थी। कई बार पेन उठाती-रखती हुई अंततः लिखना शुरू करती हूँ। बहुत कुछ लिखती-काटती हूँ, बहुत कुछ उमड़ता रहा। अन्दर इतनी हलचल जैसे शांत तालाब में एक छोटे से पत्थर के स्पर्श से उत्पन्न बहुत सी गोल तरंगे जो बहुत दूर तक फ़ैल जाती हैं।
देर रात थोड़ा सहज होने पर अब दिन भर के बेख्याली में लिखे हुए शब्दों पर सरसरी तौर से नज़र डालती हूँ। कितना कुछ लिख दिया था। विचलित करते ऊब भरे दिन का ज़िक्र, मुस्कान देता पुरानी याद का कोई मीठा टुकड़ा, मित्रों का भरोसा संभालती कई बातें। कहीं-कहीं किसी दिन की चाय के साथ ठहाकों का भी ज़िक्र था, कुछ पंक्तियाँ अति संकोची होती हुई अन्याय के विरुद्ध आवाज ना उठा पाने की घुटन में लिखीं थी तो कुछ किसी के दर्द से द्रवित होकर। कहीं पर आंसुओं से भीगी छटपटाहट वर्णित थी तो कहीं चाँद के साथ बीती लम्बी रातों और उस पर लिखी कविताओं का ज़िक्र। कुछ ज़ज्बाती होकर अपने हिस्से में आये प्रेम पर भी लिख दिया था। कुछ किसी के प्रेम को समझने और समझाने की कश्मकश में......
फिर पहाड़ों की यादें बारिश, धूप, देवदार, बुरांश, हरे दूर-दूर तक फैले बुग्यालों के साथ बिताये कुछ पल भी थे। वहीं बचपन की यादों के साथ कॉलेज के दिनों में हुए वे पहले कुछ क्रशों का सहलाता प्यारा स्पर्श भी था। वर्तमान के किस्से और साथ में थे बहुत से डूडल्स और चित्र, जिनके बीच-बीच में बहुत से प्रश्न चिन्ह भी बने थे।
या रब..... क्या था वो जो लिखना चाह रही थी ? सारे अहसासों के साथ उतार देना चाहती थी उस दिन की डायरी के पृष्ठों पर। या फिर दीमाग के खालीपन में आने वाले एक प्रसन्न दिन में पढने और याद करने के लिए। यादों में खो जाना आदत जो है मेरी...
प्रिय ' कोरैक्स' मेरी प्रिय दवा बुखार की तपिश और थकान को मुस्कान से दबाते हुए शायद तुम्हे याद करते हुए लिखा था ये सब। सर्दी के बुखार को दूर भगाने की कोशिश में...........