Monday, November 7, 2011

कंडाली महोत्सव २०११

पहाड़ों में कहीं भी चले जाओ नैसर्गिक सोंदर्य व रोचक गतिविधियों के अलावा मन बहलाने  लिए बहुत कुछ मिल जाता है। इसी माह अक्टूबर में धारचूला, कैलाश में स्थित ( जिला पिथोरागढ़ ) स्वामी नारायण आश्रम में थी। सुबह वहाँ से विदा लेते समय आश्रम की ट्रस्टी एवं अवैतनिक व्यवस्थापिका द्रोपदी जी ने कहा- 

" जाते हुए रास्ते में पास ही रिमझिम गांव में चल रहे कंडाली महोत्सव को भी देखते जाइए, ये बारह वर्षों में एक बार आता है। अब आप लोग किस्मत से आ ही गए हैं तो जरूर देखें। बहुत आनंद आयेगा" 


अपनी जानकारियों और कैमरे के साथ तैयार होकर वहाँ कई आफिसर, पत्रकार एवं अन्य विभाग के  व्यक्ति भी आए हुए थे। 

इस महोत्सव की कई कहानियाँ हैं। एक यह कि यहाँ पर उगी हुई कंडाली घास में हर बारह साल बाद सुन्दर मगर जहरीला फूल आते हैं। किसी महिला के पुत्र ने गलती से उसे खा लिया था और दुर्भाग्य से वह मृत्यू को प्राप्त हो गया था। तभी से हर बारह साल में इसे नष्ट करने का और दुर्भाग्य को दूर भगाने का उत्सव मनाया जाता हैं। 

दूसरी कहानी यह है कि एक बार जब सभी पुरुष काम पर गए हुए थे, तब वहाँ दूसरे गांव के दुश्मन लोग आ गए, गावं की महिलाओं ने उन्हें बड़ी बहादुरी से बाहर खदेड़ दिया था। डर कर दुश्मन लोग कंडाली की झाड़ियों में छुप गए। तब काम से वापस आए पुरुषों और महिलाओं द्वारा इस झाड़ी को दुश्मन सहित नष्ट कर दिया गया। तब से शापित ये पौधा ग्रामवासियों के द्वारा नष्ट किया जाता है। और इसी खुशी में ये कंडाली महोत्सव मनाया जाता है। 



गांव से दूर व विदेशों में बसे हुए भी लगभग सभी लोग इसमें शामिल होते हैं। अन्यथा उन्हें भारी पेनल्टी देनी होती है। नौ दिन का ये उत्सव आस-पास के कुछ गांवों में अलग अलग दिन तय कर के मनाया जाता है। 



मैंने ये उत्सव रिमझिम गांव में देखा। मुझे वह एक सम्रद्ध गांव लगा था। वहां के लोग बहुत ही मिलनसार व आत्मीयता से सराबोर थे। उनका उम्दा आतिथ्य ग्रहण कर के साथ में लज़ीज़ भोजन का आनंद लिया। वैसे सोचा तो था कि वहाँ का कोई विशेष पहाड़ी व्यंजन होगा, मगर कुछ ऐसा था नहीं। पूछने पर ग्रामवासी बताते हैं कि - "यहाँ लगभग सभी मेहमान हैं, सभी बाहर से एक - दो दिन पहले ही आए हैं। सो व्यवस्था बहुत अच्छी नहीं हो पाती। "



रंगबिरंगी कनातों व चमकीली झंडियों से सजा व पहाड़ी गीतों से गूंजता हुआ सारा वातावरण उत्सव के रंग में रंगा हुआ था...मैं कोने पर लगी कुर्सी पर बैठ जाती हूँ और वहीं से सारा नज़ारा देख समझ रही थी। मेहमानों के आने का सिलसिला लगातार चल रहा था। कई लोग वर्षों बाद मिल रहे थे, बहुत ही आत्मीय और भावुक क्षणों का आदान प्रदान हो रहा था। 


करीब १२ बजे थे, अब तक बहुत से पुरुष एवं बालक अपने सफ़ेद चोगों में सज चुके थे और उन्हें पगड़ी पहनाने की रस्म चल रही थी। कुछ को सफ़ेद व गांव के दामादों को गुलाबी पगड़ी पहनाई जा रही थी। हाथों में ढाल व तलवार लिए अब वे दुश्मनों ( कंडाली घास ) से युद्ध के लिए तैयार थे। 



महिलाएं व लड़कियां अपने पारंपरिक परिधानों व जेवरों से सजी हुई बेहद सुन्दर लग रहीं थीं। उनके एक हाथ में पीला रेशमी रुमाल व दूसरे हाथ में लकड़ी से बना कोई तलवार नुमा वस्तु थी। ( कालीन बुनते समय उसे उपयोग में लाया जाता है )


कुछ देर में देवता की पूजा आरंभ हुई। सभी को तिलक दिया गया, आटे का हलुआ व लोकल घर पर बनी हुई सेव की मदिरा का प्रसाद वितरण हुआ। अब सभी नाचते गाते चलते हैं करीब २ किमी दूर तक उस कंडाली    वनस्पती के फूल को नष्ट करने के लिए।  



बच्चे, बुजुर्ग,महिलाएं, पुरुष सभी का उत्साह देखने योग्य था। वापस आकर उस शाम फिर वहाँ सजे मंच पर रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन होना था। 



उस शाम को मेरी मंजिल कहीं और थी। सो समयाभाव के कारण मैं आगे का प्रोग्राम नहीं देख सकी। 

                 

अलविदा कहते हुए उनसे ये तो नहीं कह सकी की इस महोत्सव में १२ वर्षों बाद दुबारा फिर मिलेंगे। बस इतना ही कहा कि उत्तराखंड में घूमते भटकते फिर कहीं ना कहीं मिल ही जायेंगे। 


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