रात भर बादल बरसते रहे, गरजते रहे और रह-रह कर बिजली चमकती रही। सुबह तक उनकी लयात्मक लोरी के साथ मैं सुकून की नींद सोई हुई थी।
रोज़ सुबह बाहर से चिड़ियों का कलरव, सूरज की प्रथम किरणे, चीड़ और देवदार की मिली जुली खुश्बू से महकती स्वच्छ हवा खिड़की पर लहराते रेशमी पर्दों से छनकर भीतर आती और बेझिझक कम्बल से बाहर उघड़ आये ठण्ड से सिकुड़ कर सोये बदन को छूने की प्यारी गुस्ताखी करतीं हैं। मैं आँख खुलते ही इन मीठे अहसासों को संजोती नरम कम्बल का मोह नहीं छोड़ पाती हूँ। मैं फिर से कम्बल को मुँह तक ढक लेती हूँ......
पहाड़ों की सुबह बेहद खूबसूरत होती है, और यही वह अहसास है जो मुझे अक्सर यहाँ खींच लाते हैं। महानगरों में शोर, गर्मी, उमस और आसपास हरियाली के बदले इमारतें दिखतीं हैं। इन सब के बीच मैं कभी सुकून महसूस नहीं कर पाती हूं।
आज की सुबह भी उतनी सुन्दर थी। ६ बजे सुबह, आज साथ में सुनाई दिया बच्चों का संगीतमय सम्वेत स्वर..." वैष्णव जन तो तेने कहिये, पीर परायी जाने रे....." जब तक आलस छोड़ती समझ पाती कि ये रहा है ?तो अचानक याद आया आज २ अक्टूबर है। गांधी जयन्ती। शाल लपेटा, कैमरा उठाया और लगभग भागती हुई नीचे उतर कर लॉन पर आ गई। तब तक थोड़ी देर हो चुकी थी..मेरे हिस्से में आया केवल गीत, नारों का ऊंचा स्वर और पेड़ों के झुरमुट के पीछे से हल्की सी बच्चों की झलक.......
अब याद आने लगा उत्तराखंड में बीता अपना बचपन और बाल मित्रों के साथ इसी तरह देशभक्ती के ज़ज्बे से ओत-प्रोत गीत और नारेबाजी करना......ये यादें अब व्यथित कर देती हैं और थोड़ा भावुक भी। ये वक्त हमारी सुविधानुसार वहीं पर थम क्यूँ नहीं जाता, जहाँ हम इसे कुछ पलों के लिए रोक लेना चाहते हैं।
वापस पलट कर अब लॉन पर लगे झूले में बैठ जाती हूँ। कोई न कोई चाय दे ही जायेगा.......फिर आज के आगे के सफ़र की तैयारी करूंगी। बचपन की यादों से आगे बढ़ती हुई सोच, अब आगे बढ़ती हुई ज़िंदगी के कई पड़ाव पार करती हुई आज पर आ टिकती है। वैसे आज भी उतना ही सुन्दर है........मनचाहे हमसफ़र, मनचाहे कार्य, स्नेही मित्र, प्यारी बातें, यादें, मुलाकातें....सभी कुछ तो है।
" पहाड़ों से टकरा कर आवाज़ की जो प्रतिध्वनि सुनाई देती है मुझे / वो तुम्हारे दिल के कोने से निकलती है ये मैं जानती हूँ........"