Thursday, May 19, 2011

नारायण स्वामी आश्रम - धारचूला (उत्तराखंड)

                         "दस अच्छी बातें कहने से एक अच्छा सेवा का काम कर दिखाना ज्यादा अच्छा है / जाति -पाँति का भेदभाव ना रखते हुए प्राणी मात्र से स्नेह हो।"
उस दिन प्रातःकाल से ही मन अलग ही तरह की सुन्दरता गढ़ रहा था। तय हुआ कि वह दिन धारचूला में स्थित नारायण स्वामी आश्रम में बिताएंगे। बहुत समय पहले से यह नाम सुना हुआ था। तीव्र इच्छा के रहते उस दिन दर्शन होने थे। मन आनंदित था। 
प्रातः आठ बजे ही वहां के लिए प्रस्थान किया। धारचूला के तपोवन नामक स्थान से ये करीब 65 किमी दूर सोसा गावं की भूमि पर नारायण स्वामी के मार्गदर्शन में 1935 (तब वे 26 - 27 वर्ष के थे) से बनना शुरू हुआ था और 1940  में बनकर तैयार हुआ। 
मनोरम छटा बिखेरते सर्पिलाकार रास्तों से ऊपर चढ़ते जाना बेहद आनंददायक रहा।जगह -जगह जीवन का संकेत देते निर्झर, स्वच्छ  झरने और चारों तरफ फ़ैली हरितिमा मन को अभिभूत कर रही थी। 
चीड़, बांज, देवदार के पेड़ और उनके बीच खिलते हुए लाल सुर्ख बुरांश के फूलों की डालियाँ। चारों तरफ फैली चीड़ और जंगली फूलों की सुगंध मदहोश कर रही थी। प्रकृती अपना सारा खज़ाना खोल कर लुटाने को तैयार थी। लगभग दस बजे के आसपास हम सभी ऊपर आश्रम पहुँच गए। 
इतना मगन कर देने वाला दृश्य मानो शिव के धाम में चले आए। वातावरण में उर्जा का संचार इतना तीव्र था कि आँखों में आंसू, शरीर में झूम और सिहरन महसूस होने लगी। नारायण स्वामी को कई जगहों पर तपस्या करने व भटकने के बाद 1935 में यहाँ आकर शांति मिली थी। वे कर्नाटक के रहने वाले थे व उच्च शिक्षित भी थे। नारायण स्वामी कीर्तन करते -करते ही घंटों  भाव समाधी में चले जाया करते थे। 
उन्हें कई तरह के साज़ बजाने आते थे..आज भी उनके करताल, गिटार, मेंडोलिन आदि उधर रखे हुए हैं। 
जब आश्रम में भक्तों की संख्या बहुत बढ़ जाती थी। तब एकांत तलाशते गहन, ध्यान करने वे इस शून्य कुटीर में आ जाते थे। 
ये गुम्बदनुमा छत Gothic  Architecture लिए हुए बना है। इसके चारों तरफ से घने जंगल व दूर हिमालय की सुंदर हिमाच्छादित चोटियाँ साफ़ दिखाई देतीं हैं। 
 शून्य कुटिर के अन्दर उनके वस्त्र, खडाऊं, कमंडल, झोला आदि सामान आज भी सुरक्षित है। उनके कुछ भाव मुझे बहुत ही आकर्षित करते हैं। तर्क एवं व्याख्यानबाजी से दूर रहकर वे कहते थे- "Trust is the name which gradually deepens into Divine love /  Where faith is missing, life loses all its zest"
ऐसे  उत्तम विचारों के धनी नारायण स्वामी हर किसी को नारायण नाम के संबोधन से बुलाते थे। सभी एक ही ईश्वर से उत्पन्न हैं। हो सकता है उनकी सोच का आधार यही रहा हो। 9 नवम्बर 1956 को 48 वर्ष के अवस्था में वे ब्रह्मालीन हुए। 
ऊपर जाते ही सर्वप्रथम मुलाकात एक सौम्य महिला सुश्री द्रौपदी गर्बियाल जी (सेवानिवृत प्रधानाचार्या एवं ट्रस्टी) से हुई। अब उन्होंने अपना जीवन यहाँ से कार्य करते हुए मानव सेवा को समर्पित किया हुआ है। उन्हें देख कर मैं चौंक उठी। वही चेहरा, वही आवाज़, वही स्वरूप। उन्हें बहुत करीब से देखा हुआ है मुझे कुछ ऐसा अहसास हुआ। आश्रम की जानकारी लेते हुए मालूम हुआ कि द्रौपदी गर्बियाल जी सुश्री गंगोत्री गर्बियाल जी की छोटी बहन हैं। वे भी सेवानिवृत प्रधानाचार्या व 1999 तक आश्रम में अवैतनिक व्यवस्थापक एवं ट्रस्टी रहीं थीं। दोनों बहनों की शक्लों में आश्चर्यजनक समानता थी। 
जब मैं रानीखेत में कक्षा 6 -7 कक्षा में थी। गंगोत्री गर्बियाल जी हमारी प्रधानाचार्या थीं। वे समय की पाबंद, व्यवस्थित, अनुशासित, शख्त मिजाज़ और सधी हुई आवाज वाली शानदार महिला थीं। उनकी दमदार बुलंद आवाज़ बिना माइक के भी दूर तक पहुँच जाती थी। 
मुझे भी उन्हें करीब से जानने के कुछ सुअवसर मिले थे। स्मृति में उनके कहे चंद शब्द उभर आए- "तुम लड़की थोड़ा और बोला करो। इस उम्र में इतनी चुप्पी अच्छी नहीं होती।"
सोचती हूँ आज मिली होती तो...? कुछ पल अचानक ज़िंदगी में कितने महत्वपूर्ण होकर हमेशा के लिए अमर हो जाते हैं। ग़र मैं यहाँ कुछ वर्ष पहले आती तो उनसे मेरी मुलाकात अवश्य हो जाती। (1999 में 82 वर्ष की अवस्था में उन्होंने इस संसार को अलविदा कह दिया था) 
संतों का साथ भी हर किसी के भाग्य में कहाँ। कहते हैं ना..'बिनु हरिकृपा मिले नहीं संता' द्रोपदी जी को 80 वर्ष की अवस्था में भी अति स्वस्थ्य और सामर्थ्यवान देख कर योग, प्राणायाम, सेवा भाव व संतों के आशीर्वाद की शक्ति पर आश्चर्य के साथ विश्वास भी हो जाता है। 
यहाँ पर अक्सर ज्ञान शिविर भी होते हैं। (हिंदी, गुजराती व इंग्लिश में) सन 1981 से कैलाश मानसरोवर जाने वाले यात्री यहाँ दर्शन करने के लिए आने लगे। नारायण स्वामी ने स्वयं भी 1936 - 1954 के दौरान 13 बार कैलाश मानसरोवर यात्रा की थी। 
द्रोपदी जी के साथ आश्रम परिसर को देखने व समझने के बाद हमने स्वादिष्ट भोजन का आनंद लिया। उनकी लिखी पुस्तक 'परम पूज्य श्री नारायण स्वामी एवं श्री नारायण आश्रम' भेंट स्वरुप मिली। सुंदर, मीठी बातें, मुलाकातें, यादें व संतों की पावन भूमि से अभिभूत होते फिर भौतिक दुनिया में वापस आना मन को भा नहीं रहा था...किन्तु, परन्तु..

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