कहने वाले कहते हैं ईश्वर को जहाँ देखो वहीं दीखते हैं। बस मन में श्रद्धा होनी चाहिए। शायद वो सभी महान श्रद्धालु होते हैं जिन्हें देवताओं के सर्वत्र दर्शन होतें हैं। सोसाइटी के बाहर पेड़ों के नीचे, मंदिरों के प्रांगण में या मंदिरों के आस -पास के पेड़ों पर ऐसे दरख़्त देवता बखूबी डेरा जमाये रखते हैं। बस अंतर इतना होता है कि यदि वे घर या मंदिर के भीतर विराजमान होते तो वहां इनका पूरा सत्कार होता। स्नान -ध्यान, धूप -बत्ती, भोग -प्रसाद आदि से।
यहाँ सड़क पर लगे पेड़ों के नीचे इन्हें कोई नहीं पूछता। यहाँ तक की कोई दो घड़ी रुक कर सर तक नहीं झुकाता। जुलम !! केवल स्थान बदल जाने से, सत्ता बदलने से, कुर्सी बदलने से इतना बड़ा अंतर ?
यहाँ सड़क पर लगे पेड़ों के नीचे इन्हें कोई नहीं पूछता। यहाँ तक की कोई दो घड़ी रुक कर सर तक नहीं झुकाता। जुलम !! केवल स्थान बदल जाने से, सत्ता बदलने से, कुर्सी बदलने से इतना बड़ा अंतर ?
सोचती हूँ पुराने हो जाने पर या जरा सा भी खंडित हो जाने से यदि देवताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है फिर इंसानों की क्या क़दर ? बुज़ुर्ग हुए, पुराने हुए, बीमार हुए.... सब बाहर।
एक बड़ा सवाल ये भी है कि इस टाईप के महान भक्तों के पास यदि इन देवताओं के लिए अपने घर में जगह नहीं रह जाती है तो वो इन्हें कूड़े में क्यों नहीं फेंक देते? पेड़ों के नीचे या मंदिरों में क्यों बैठा जाते हैं ? क्या दिल में कोई चोर होता होगा ? शायद गलत कर रहे हैं ? या मन के किसी कोने में कुंठा होती होगी ? या शगुन -अपशगुन का भय ?
क्या भगवान् इस बात के लिए इन्हें माफ़ कर देते होंगे कि शुक्र है कमसकम पेड़ के नीचे तो बैठा गए कूड़े में नहीं फेंका ? हमेशा की तरह मेरे अनुत्तरित प्रश्न...