Saturday, December 11, 2021

मेरी अनुवादित व प्रकाशित कहानियां

मराठी अनुवादिका  -   सुश्री मिनाक्षी सरदेसाई 

मूल लेखिका -   रिया शर्मा 




Thursday, October 14, 2021

Tuesday, September 28, 2021

पीढ़ी अंतराल की कश्मकश, अमर उजाला में प्रकाशित लघुकथा ।



 पीढ़ी अंतराल की कश्मकश । आज के अमर उजाला में प्रकाशित लघुकथा । हार्दिक शुक्रिया, आभार, संपादक अमर उजाला।

Monday, August 23, 2021

पाखी मासिक पत्रिका के अगस्त 2021 , अंक में प्रकाशित उपन्यास समीक्षा

पहाड़ों से होते पलायन के दर्द को उजागर करते मेरे उपन्यास -'पहाड़ की सिमटती शाम' की समीक्षा मुख्य धारा की - 'पाखी'  पत्रिका में प्रकाशित।  


 पत्रिका सम्पादक -     अपूर्व जोशी 

समीक्षक -              प्रोफ़ेसर साधना अग्रवाल 

Monday, August 2, 2021

गुप्त भारत की खोज ( A SEARCH IN SECRET INDIA )

"इस पुस्तक का नाम मैंने 'गुप्त भारत की खोज' (A search in secret India) इसलिए रखा है कि यह उस भारत की कथा है जो हज़ारों वर्ष से परखने वालों की आंखों से ओझल रहा है, जो संसार से इतना अलग और एकांत रहा है कि आज उसके बचे -खुचे चिन्ह ही रह गए हैं और उनके शीघ्र मिट जाने की संभावना है।" पॉल ब्रंटन 
रफायल हर्स्ट (1898 - 1981) ब्रिटिश सैनिक, पत्रकार व लेखक रहे हैं। यह पुस्तक उन्होंने 'पॉल ब्रंटन' के छद्म नाम से लिखी है। 1930 से भारत की तीव्र ग्रीष्म, लू, बरसात और कई कष्टों से आत्मसात होते हुए साधु, संत, जादूगर, चमत्कारों, ज्योतिष शास्त्र, योग, अध्यात्म आदि की खोज में पश्चिम से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम नाप दिए थे। अंत में उनकी खोज, जिज्ञासा और ज्ञान की प्यास, दक्षिण के -"Silence is truth, silence is bliss, silence is peace. And hence silence is the self " कहने वाले रमण महर्षि के पास पहुंच कर तृप्त हुई। 

यात्रा के दौरान वे अंध -विश्वास से पगी हुई मूर्ख प्रथाओं से भी गुजरे। इस तरह के कई खट्टे -मीठे, रोमांचकारी, अद्भुत, अविश्वसनीय, आलौकिक, चमत्कारी आदि विलक्षण अनुभवों को उन्होंने 1934 में पुस्तक रूप में संजो दिया। तब से इस अति विख्यात, बैस्टसैलर पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद होता रहा है। आज के पाठकों को उस वक्त के भारत का अद्भुत वर्णन पढ़ कर आश्चर्य मिश्रित रोमांच होना स्वभाविक है। 

वे कई तरह की योग विद्याओं में, योग में, अध्यात्म में, स्वयं की खोज, सत्य की खोज आदि में रत योगियों, संतों, साधुओं, फकीरों से रूबरू होते रहे। वे ज्योतिषों, जादूगरों आदि के संपर्क में भी आते रहे। इस खोज यात्रा में उन्हें कहीं मायूसी मिली तो कहीं हर्ष और चमत्कार के दर्शन हुए। हर तरफ से वे अनुभवों को समेटते रहे। जहां तक जितना हो सके वे अपनी शंकाओं का निराकरण करते रहे। यह ज्ञान की तृप्त न होने वाली वह प्यासी गंगा थी जो भारत देश में उन्हें इधर -उधर भटकाते हुए अपने साथ बहा लिए जा रही थी। 

मद्रास में ब्रह्म स्वामी से हुआ संवाद - "तुम पश्चिमी लोग सदैव सक्रिय रहने पर बहुत जोर देते हो। पर क्या आराम तिरस्कार करने योग्य वस्तु है? शान्त और प्रसन्न नाड़ियों का कोई महत्त्व नहीं? शांति और आराम योगाभ्यास के श्रीगणेश हैं। सारी दुनिया को इसकी आवश्यकता है।" लेखक योग और अध्यात्म के इसी सागर में डुबकी लगाने के लिए भारत की तरफ आकर्षित हुए थे। 

बनारस, काशी, विश्वनाथ पुरी कभी बेहद संपन्न था। कभी मृत्युपरांत साक्षात् शिव धाम पहुंचने की तीव्र इच्छा रखने वाले अपने जीवन के अंतिम दिनों को व्यतीत करके मोक्ष प्राप्त करने यहाँ चले आते थे। उसी बनारस का तिक्त एवं करुण हश्र देख कर लेखक कहने को बाध्य हो गए - "बनारस नाराज न होना, यदि मैं कहूं कि चाहे तुम हिन्दू -संस्कृति का केंद्र भले ही रहो परन्तु अनात्मवादी गोरों से कुछ तो कृपा करके सीख लो और स्वास्थ्य विज्ञान की आग में अपनी पवित्रता को थोड़ा सा तपा लो।" दुर्भाग्य से हमारे भारत देश के कई स्थानों का आज भी यही हाल है। हमारे लगातार प्रयासों से कभी तो स्वच्छ भारत का ये सपना साकार होगा। 
अति रोचक और ज्ञान चक्षु खोलते हुए उदाहरणों से भरपूर यह पुस्तक अपने आप को रवानगी एवं तन्मयता से पढ़ने को मजबूर करती है। किसी पुस्तक के अति लोकप्रिय होने का यह भी एक कारण होता है। 

आंग्ल होने के बावजूद पॉल ब्रंटन इस पुस्तक में अपने जिए हुए के साथ जिस शिद्दत से पाठकों को लिए चले हैं, जिस लुभावनी और हैरानी भरी उत्सुक दृष्टि से भारत देश के दर्शन करवाए हैं उस के लिए, शब्दों के अभाव में - 

तुमने अद्वितीय, अविश्वसनीय, अलौकिक भारत के दर्शन करवाए, तुम कमाल हो प्रिय लेखक। 

Monday, June 21, 2021

सुंदर है विहग सुमन सुंदर, मानव तुम सबसे सुंदरतम


मुद्दतों बाद फुर्सत व एकांत का मिलना अद्भुत होता है। हर पल शारीरिक मशक्कत, दिमागी कसरत करते हुए मानव गोया मशीन बन ​गया है। 

इस ​पीड़ादायक ​कोरोना काल में अपने इर्द गिर्द नज़र डालें तो इंसानी व्यवहार में अज़ब परिवर्तन दिख रहा है। ​माना कि ​संसार में सबका अलग स्वर होता है। शरीर का अलग, मन मस्तिष्क कुछ और कहता है और दिलो दिमाग एक अलग ही दुनिया में विचरता है।​ ​आजकल फुर्सत है सो खामोशी से बैठ कर अपने चारों तरफ देखते रहें, परिवर्तन को बारीकी से महसूस ​करते रहें और अचंभित होते​ रहें . 

​कहीं ​दहशत, भय, उदासी, ऊब, संताप, पीड़ा, बेरुखापन, नाराजगियाँ, अकेलापन, अवसाद, समझौते ​आदि भाव दीख रहे हैं तो ​कहीं पर सौम्यता, सरलता, सादगी, सहजता जैसे सद्गुण भी नज़र आ रहे हैं। नाना मटमैले व खुशनुमा रंगो से भर गई है ये दुनिया इंसान थम गया​ है​, उसकी सोच थम गई​​, जिंदगी रुक गई​ है​। ये सभी भाव पहले भी थे किन्तु अब इसमें अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हो गई है। पिछले दिनों दहशत और पीड़ा भरा जो समयगुजरा है, अभी भी गुजर रहा है और आगे भी कुछ और वक्त जिसके बने रहने की आशंका है उसे झुठलाया नहीं जा सकता।​ ​एक अदना सा ​नग्न आंखों से ​न दिखाई देने वाला विषाणु इतना बड़ा विश्वव्यापी बदलाव कर रहा है? इंसान हारा भी तो इससे? ​विस्मय होता है।  

इससे प्रभावित नहीं हुए तो सूरज, चाँद, प्रकृति, पंछी, जानवर आदि, ये सम पर रहे, कतई नहीं बदले। अपनी ही रवानगी में विचरण करते रहे। फूल खिलते रहे, फलों से रस झरता रहा। पंछी चहचहाते रहे, नदिया कलकलाती रही, हिरन कुलाचें भरते रहे... नदियों की धारा के मार्ग में अवरोध आने पर वह मार्ग बदल लेती है ​फिर भी निरंतर गतिमान रहती है। ​किसी भी हाल में ​प्रकृति की व्यवस्था नहीं ​थमती। ​ 

अब ​ऐसे में इंसान क्या करे? उसे कुछ तो करना होगा। अपने अवसाद से बाहर निकल कर सकारात्मक होकर कुछ न कुछ तो ​सोचना और उसे कार्यान्वित ​करना ही होगा। द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी ने अपनी कविता के ज़रिये बचपन में ही सिखा दिया था - वीर तुम बढ़े चलो...धीर तुम बढे चलो " उस वक्त चाहे वह कविता किसी भी अर्थ में कही गई हो किन्तु आज के हालात में हम ऐसा भावार्थ ले सकते हैं। 

करो ना 
क्षण भर को थम जाओ 
खूब संभल जाओ ​परन्तु हे वीर मानव! 
अपने 
अवसाद से ​
अपनी नकारात्मकता से 
बाहर निकल कर कुछ न कुछ तो 
करो ना 

Monday, June 7, 2021

अभी ज़मीर में थोड़ी सी जान बाकी है

            
ज़मीर ज़िंदा रख, कबीर ज़िंदा रख 
सुल्तान भी बन जाये तो, दिल में फ़कीर ज़िंदा रख  (अज्ञात)
               
"उदासी, संताप, कष्टों से भरा अजीब समय आ गया है। कुर्सी पर मायूसी से बैठे 'क' ने गहरी उसाँस भरी।   
 
"समय परिवर्तनशील है। एक समान कभी नहीं रहता। इसमें अजीब क्या है?" दूसरी कुर्सी पर पसरे हुए 'ब' ने माथे पर सिलवटें डालते हुए हाथ को हवा में लहराया। 

"अरे! सो रहा है क्या तू, जाग, आंखें खोल। दुनिया भर में इस कोरोना ने तबाही मचा रखी है। हर तरफ त्राहि माम की कराह से तेरा दिल नहीं दुखता?" 'क' हतप्रभ है।   

"इसके अलावा भी बहुत कुछ किया जा सकता है। केवल रोते -बिसूरते रहने से, सरकार को, असुविधाओं को, डॉक्टरों आदि को कोसते रहने से क्या हल निकलेगा? ऐसा करने वाले स्वयं से सवाल पूछे। - इस महामारी की जंग में उनका क्या योगदान है? करने वाले बहुत कुछ कर रहे हैं। जो कुछ नहीं करते वे सिर्फ मिचमिच करते हैं, बकबकाते हैं। और तूने ही क्या कर दिया है? 'ब' आवेश में आकर अपनी कुर्सी छोड़ कर खड़ा हो गया और कमरे में तेजी से चहलकदमी करने लगा। 

"मैं क्या कर सकता हूँ? मुझे क्या करना चाहिए? क्या मैं इस संकट की घड़ी में किसी के कुछ काम आ सकता हूँ...." जैसे कई सवाल 'क' के ज़हन में तूफ़ान आए समुद्र की तरह हहराने लगे।  

आहिस्ता चल ऐ ज़िंदगी / कुछ क़र्ज़ चुकाने बाकी हैं,
कुछ दर्द मिटाने बाकी हैं / कुछ फ़र्ज़ निभाने बाकी हैं।  (गुलज़ार )


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