मुद्दतों बाद फुर्सत व एकांत का मिलना अद्भुत होता है। हर पल शारीरिक मशक्कत, दिमागी कसरत करते हुए मानव गोया मशीन बन गया है।
इस पीड़ादायक कोरोना काल में अपने इर्द गिर्द नज़र डालें तो इंसानी व्यवहार में अज़ब परिवर्तन दिख रहा है। माना कि संसार में सबका अलग स्वर होता है। शरीर का अलग, मन मस्तिष्क कुछ और कहता है और दिलो दिमाग एक अलग ही दुनिया में विचरता है। आजकल फुर्सत है सो खामोशी से बैठ कर अपने चारों तरफ देखते रहें, परिवर्तन को बारीकी से महसूस करते रहें और अचंभित होते रहें .
कहीं दहशत, भय, उदासी, ऊब, संताप, पीड़ा, बेरुखापन, नाराजगियाँ, अकेलापन, अवसाद, समझौते आदि भाव दीख रहे हैं तो कहीं पर सौम्यता, सरलता, सादगी, सहजता जैसे सद्गुण भी नज़र आ रहे हैं। नाना मटमैले व खुशनुमा रंगो से भर गई है ये दुनिया। इंसान थम गया है, उसकी सोच थम गई, जिंदगी रुक गई है।
ये सभी भाव पहले भी थे किन्तु अब इसमें अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हो गई है।
पिछले दिनों दहशत और पीड़ा भरा जो समय गुजरा है, अभी भी गुजर रहा है और आगे भी कुछ और वक्त जिसके बने रहने की आशंका है उसे झुठलाया नहीं जा सकता। एक अदना सा नग्न आंखों से न दिखाई देने वाला विषाणु इतना बड़ा विश्वव्यापी बदलाव कर रहा है? इंसान हारा भी तो इससे? विस्मय होता है।
इससे प्रभावित नहीं हुए तो सूरज, चाँद, प्रकृति, पंछी, जानवर आदि, ये सम पर रहे, कतई नहीं बदले। अपनी ही रवानगी में विचरण करते रहे। फूल खिलते रहे, फलों से रस झरता रहा। पंछी चहचहाते रहे, नदिया कलकलाती रही, हिरन कुलाचें भरते रहे... नदियों की धारा के मार्ग में अवरोध आने पर वह मार्ग बदल लेती है फिर भी निरंतर गतिमान रहती है। किसी भी हाल में प्रकृति की व्यवस्था नहीं थमती।
अब ऐसे में इंसान क्या करे? उसे कुछ तो करना होगा। अपने अवसाद से बाहर निकल कर सकारात्मक होकर कुछ न कुछ तो सोचना और उसे कार्यान्वित करना ही होगा। द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी ने अपनी कविता के ज़रिये बचपन में ही सिखा दिया था - वीर तुम बढ़े चलो...धीर तुम बढे चलो " उस वक्त चाहे वह कविता किसी भी अर्थ में कही गई हो किन्तु आज के हालात में हम ऐसा भावार्थ ले सकते हैं।
करो ना
क्षण भर को थम जाओ
खूब संभल जाओ परन्तु हे वीर मानव!
अपने
अवसाद से
अपनी नकारात्मकता से
बाहर निकल कर कुछ न कुछ तो
करो ना