वक्त के साथ मेरी कलम
अब खामोश होने लगी
सन्नाटे में शब्द तलाशते
अहसासों की स्याही सूखने लगी
कोरे कागज़ पर मौन जड़कर
लिखना सार्थक कर देती हूँ
रफ़्तार पकड़ते जीवन से टकरा
उपेक्षित दिल कराहता है
वक्त ने ठहाका लगाया
गीत कब निकलेंगे अब
कलम भी तड़प कर बोली
मुझे भी खिलखिलाना है
उत्तर ढूढते बेबस लफ्ज़
जा छुपे ख़ामोशी के पहलू में
तब भीतर की कसक को दबा
सीने से लगा सहला देती हूँ मैं उसे