दम तोड़ते रिश्ते बहुत देर डगमगाते हैं
इस कोशिश में सहारा मिले
तो टांग दें ज़ज्बात उस पर
दूर अहम् की चादर ओढ़े उम्मीद
हाथ बांध मुस्कुराती है
अकेला बैठा अहम्
अपनी मजबूरियों के गीत गाता
स्याह पलों में रंगकर
उजाले का इंतजार करता
न होने वाली सहर का
हाथ में हाथ डाले चंद लम्हे
तब दे जाते हैं साथ
बिना पूछे कैसे और क्यूँ
आशाओं के गीत गुनगुनाते
उस पार पहुंचा देते
जहाँ पूर्णिमा का चाँद
मुस्कुराता सतरंगी सपने दिखा
जीने का आधार बनाता
अल्हड़ नवयौवना सा श्रृंगार दे
बहार का नाम सार्थक कर जाता