Friday, August 27, 2010

बहार लिखने का मन था आज












दम तोड़ते रिश्ते बहुत देर डगमगाते हैं

इस कोशिश में सहारा मिले
तो टांग दें ज़ज्बात उस पर
दूर अहम् की चादर ओढ़े उम्मीद
हाथ बांध मुस्कुराती है

अकेला बैठा अहम्
अपनी मजबूरियों के गीत गाता
स्याह पलों में रंगकर
उजाले का इंतजार करता
न होने वाली सहर का

हाथ में हाथ डाले चंद लम्हे
तब दे जाते हैं साथ
बिना पूछे कैसे और क्यूँ
आशाओं के गीत गुनगुनाते
उस पार पहुंचा देते

जहाँ पूर्णिमा का चाँद
मुस्कुराता सतरंगी सपने दिखा
जीने का आधार बनाता
अल्हड़ नवयौवना सा श्रृंगार दे
बहार का नाम सार्थक कर जाता

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