( कुछ समय पूर्व ऋषिकेश में गंगा के पावन तट पर ..जीवन के दौड़ भाग से दूर फुर्सत के क्षणों में इन सब से रूबरू हुयी थी )
ये देश के अपने भूखे बच्चे
कुम्हलाये सहमे बदरंग से बच्चे
खाने का ठिकाना ना पहनने की सुध
नादां अनबूझ पहेली से बच्चे
जरा इनके चेहरे की रौनक तो देखो
हर हाल मुस्कुराता ये जीवन तो देखो
हँसी शरारत ये मौज मस्ती
मासूमियत का ये मंज़र तो देखो
ममता के आँचल को तरसते सिसकते
सहारे को इक हाथ ढूंढते झिझकते
गर इक हाथ हम ही हैं बढाते
क्या देश के ये किसी काम ना आते?