Sunday, April 5, 2020

जो जीता वही सिकंदर


कल शाम सोसाइटी के भीतर टहलने निकली। कुल तीन लोग दिखे, मेरी जैसी बबाल हरकत करते हुए। अभी एक चक्कर लगाया ही था कि क्यूट से बुजुर्ग गार्ड भैया सामने आ गए। मुस्काते हुए बोले।

"मास्क भी नहीं। मैडम आप का भी अलग ही चल रहा है। आपको क्या लग रहा कि कोरोना वाईरस आपसे पूछेगा - 'मुझसे दोस्ती करोगे?' वो बस गले पड़ जाएगा। आगे आप खुद समझदार हैं।" 

"मतलब आप अब भी मान रहें हैं कि मैं समझदार हूँ?" मैं हंस दी। ये मेरी हंसी भी अजीब है। जहाँ इसकी जरुरत कतई नहीं होती वहां भी झट हाज़िर। मुझे नहीं लगता जीवन में रोनी सूरत लेकर, तंज, ताने देकर, अपनी कुंठाओं को दूसरों पर उड़ेल कर या फिर नकारात्मकता फैला कर हम संकट से ऊबर जातें हैं या अपनी व्यथाओं को कम कर देते हैं। 

"घर कब से नहीं गए?"

"जब से लॉकडाउन हुआ है" उनकी सरल मुस्कान अभी भी वहीं थी। 

"घर परिवार से दूर हैं, चिंता नहीं होती उनकी?"

"होती क्यों नहीं है?"

"फिर?"

"सभी इंसान पहले अपने घर परिवार की ही चिंता करते हैं। दूसरों के लिए कुछ करने का अवसर अभी आया है? फ़ौज़ में भर्ती होना चाहता था। नहीं चुना गया। आजकल अच्छा लग रहा है। ऐसे लगता है हम सब देश के वीर सिपाही हैं। डॉक्टर्, नर्स, पुलिस, फ़ौज़ सभी आगे आ गए। जान पर खेल कर ज़िंदगियाँ बचा रहें हैं। घर -बार तो उनके भी हैं न मैडम।" इंसान सोचता है केवल बड़ी पद -प्रतिष्ठा वाले ही समझदार होते हैं। 

आज सबकी जान पर बन आई है इसलिए घबराहट से भरे खामोश हैं। जिस दिन संसार इस विषाणु से मुक्त हो जाएगा देखना तब है। फिर से सब सिकंदर बन जाएंगे। सरकार को कोसने भेजंगे, आरोप -प्रत्यारोप लगेंगे। तोहमतें लगेंगी, लानत -मलानत होगी। देश में अशांति और नफरत फैलाने वाले तत्व फिर सर उठाएंगे। बहरहाल, जिसके पास जो होगा, वह वही तो बांटेगा।