Tuesday, March 24, 2020

कई चांद थे सरे- आसमां' - ज़िंदगी और इश्क़ की दास्तान


समझा ही नहीं कोई कि दुनिया क्या है / कहता ही नहीं कोई कि दुनिया क्या है 
अफ़लाक पहेलियां बुझाते ही रहे / बूझा ही नहीं कोई कि दुनिया क्या है 

'कई चांद थे सरे- आसमां' - शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी द्वारा कलमबद्ध की हुई और नरेश 'नदीम' द्वारा अनुवादित 748 पृष्ठ की बजनदार पुस्तक मेरे बुक शेल्फ में पिछले एक वर्ष से है। बड़े मन से खरीदी थी। तब मुझे सिर्फ इसका टाईटल बेइंतहा पसंद आया था। बाद में इस पुस्तक की मशहूरियत का मालूम हुआ।

मैं इस पुस्तक को पहली बार पढ़ने पर कोई खास समझ नहीं सकी फिर भी सरसरी तौर पर पूरी पढ़ी थी। किसी जगह का इतिहास ठीक परन्तु राजा -महाराजाओं के बारे में जानना मुझे बहुत आकर्षित नहीं कर पाता। कितने राजा, कौन किसका बेटा -बेटी..गडमड। इतिहास आठवीं तक अनिवार्य था सो पढ़ा फिर तौबा करते हुए इन सब से बचने के लिए मैं विज्ञान पढ़ने चल दी थी।

कोई भी पुस्तक पढ़ने के लिए अमूमन मेरे पास रात का खामोश समय होता है। हर पुस्तक का अपना एक अलग तरह का सफर होता है। कोई पुस्तक दिमाग से सोचने पर मजबूर कर देती है और कोई दिल से। मेरे साथ भी ऐसा ही होता है। किसी पुस्तक को पढ़ते हुए उनींदी हो जाती हूँ और किसी को पढ़ते हुए समय का पता ही नहीं चलता।सुबह खिड़की से जब चिड़िया की चह -चह और आस -पास की हलचल शुरू होने लगती है तब ध्यान आता है। गड़बड़ हो गई। अब ये नया दिन अलसाते हुए बीतेगा।

वैसे भी सप्ताह में दो दिन मेरा मन मौन व्रत रखने का होता है। संगी साथी कुछ देर मसखरी करते हुए फिर -फिर पूछते हैं। "क्या हुआ? आज फिर राजदरबार में सन्नाटा है?" उत्तर देना आवश्यक न हुआ या मन नहीं किया तो किसी की बातों पर केवल मुस्करा देने मात्र से भी विराम लगाया जा सकता है।

बहरहाल 'कई चांद थे सरे- आसमां' में वज़ीर ख़ानम, जहांगीरा बेगम आदि..कुछ अन्य खूबसूरत खातूनों और नाज़नीनों के फ़रिश्ते से हुस्न की चर्चा और मर्दों का अदबीपन इस पुस्तक को पढ़ने का उत्साह बनाए रखे है। इसे पढ़ते हुए एक उक्ति याद आ जाती है।

'खुदा गर हुस्न देता है, नज़ाकत आ ही जाती है'

अब पुस्तक दुबारा हाथ में है। खुदाया खैर..