Wednesday, June 15, 2011

आज भी ये शहर मुझे अजनबियों की तरह घूरता है

वर्षों पहले 
मैं इस शहर को समझने 
 पहाड़ों से उतर कर समतल में आई थी 
सकुचाते सहमते हैरान आँखों से चमकती दुनिया 
 अलग ही दिखती 
 खुशी और गम के गीत गाती 
फिर जीवन का लम्बा सफ़र तय करती रही 
यहीं पर आत्मविश्वास बढ़ाते प्रेममयी सजाते सहलाते 
कुछ हमसफ़र मिले 
कुछ रिश्ते आज भी डराते हैं 
बुरे ख्वाब से कभी पीछा नहीं छोड़ते  
इनकी लम्बी कहानी आज तक रामायण की तरह 
किश्तों में सुनती हूँ 
होंठों पर लम्बी मुस्कुराहट पहनकर 
घबराहट को छुपाने की भरपूर कोशिश करती 
 चहेरों पर अपनी बातों की प्रतिक्रियाएं ढूढती समझती  
बढ़ जाती हूँ 
उन राहों पर जहाँ ज़िंदगी 
बाहें फैलाये स्वागत करती नज़र आती है 
सिमट जाती हूँ फिर उन हसीन वादियों के दामन में
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