Wednesday, July 10, 2019

इस जीवन का यही है रंग रूप


कई बार हम चाहते कुछ और हैं, हो कुछ और जाता है। मैं जाना कहीं और चाहती हूँ पहुँच कहीं और जाती हूँ। लिखना कुछ चाहती हूँ लिख कुछ और जाती हूँ। खूब बोलना चाहती हूँ और खामोश रह जाती हूँ। जब खामोश रहना चाहती हूँ तब बेवजह बकबका देती हूँ। सामाजिक हलचलों में शिरकत करना चाहती हूँ तब उदासीनता की कई वजहें खुद ब खुद बन जातीं हैं। दुनियादारी से दूर रहना चाहती हूँ और खूब सामाजिक कार्यों में उलझ जाती हूँ। पता नहीं मैं क्या चाहती हूँ और ये ऊपरवाला क्या करवा लेता है मुझसे। होता सब अच्छा ही है फिर भी - या रब! जैसा मैं चाहती हूँ वैसा कब होगा?