Thursday, December 22, 2016

डिअर ज़िंदगी (आय लव यू डिअर) - फिल्म देखते हुए


मैंने ज़िंदगी में बहुत से काम अकेले किये और खूब किये। हर काम के लिए साथी चाहिए बड़ा बेईमाना सा लगता है। लेकिन कभी फिल्म अकेले नहीं देखी थी। एक भी नहीं। अव्वल तो मैं फिल्म कम ही देखती हूँ। किन्तु कोई ज्यादा रोमांचक हो अपने उम्दा रीव्यू के साथ, तो जरूर देखना चाहती हूँ। किसी बेहतर को यूँ बेमतलब जाने देना, मेरी फितरत नहीं।

हफ्ते भर से सहेलियों से पूछ रही थी, सब व्यस्त। तब लगा जैसे दुनिया की सभी फ़ुरसतें मेरी ही मुठ्ठी में हैं। लकी मी...न जाने कितनी ही देखी जाने योग्य फिल्म इन सभी बातों के चलते नहीं देख सकी थी।

उस दिन सोचा 'डिअर ज़िंदगी' देखी जाय। मॉल मेरे घर से पैदल दूरी पर है। ऑनलाइन देखा शो का टाइम गयारह बजे का था। ग्यारह बजने में दस मिनट शेष थे। शनिवार की आराम फरमाती सुबह  थी। छुट्टी वाला दिन। अभी पजामा में ही थी। दो डिओ के स्प्रे किये और बिना नहाये ही चल दी। थोड़ा झिझक थी , अज़ीब लगा।  मेरे लिए कोई भी नया  काम पहली बार करना कभी सहज नहीं होता।

बहरहाल मैंने रिसेप्शन पर बैठी बालिका से कहा - "एक टिकट. सबसे पीछे.. हम्म"

उसने इधर -उधर देखा। शायद मेरा साथी देखने की उत्सुकता में हो। उधर खिलखिलाते जोड़े,  चहकतीं महिलाएं और लडकिया थीं। अच्छी रौनक थी।

उस दिन तसल्ली से बैठ कर फिल्म देखी। पहली बार कोई फिल्म खूब अच्छे से समझ आयी। अन्यथा मित्रों या पति के साथ बैठ कर बातें होनी बाजिब हैं। खूब आनंद आया। फ़िल्में अकेले ही देखनी चाहिए। सच..

दूसरी फिल्म देखने गयी।  'बेफिक्रे'  तब वो बालिका मुझे पहचान गई। मेरे कुछ कहने से पहले  ही बोली। "मैम एक टिकिट, सबसे पीछे... है न?" हम दोनों ही हंस दिए। ये नए ज़माने की बालिकाएं शानदार होतीं हैं। बिना संकोच, खुल कर जीतीं हैं। अब मैं अकेले फिल्म देखना ज्यादा पसंद करती हूँ।

वैसे किसी का भी हो, इंतज़ार बुरी शै है....परेशानियों और बेचैनी के सिवा कुछ हासिल नहीं होता। सुन रहे हो...सभी बेमतलब की व्यस्तता में फंसे हुए लोगों। तुम सब बेकार लोग हो।



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