Wednesday, June 29, 2016

अज़नबी कौन हो तुम


इंतज़ार न भी हो किसी का तो क्या 
हमें पलट कर देखने की 
आदत हो गई है 
क्या करें 
कभी जी लेते हैं कुछ पल महोब्बत के
कभी बन जातें हैं अज़नबी फिर से 
चलते रहतें हैं दोनों 
चुपचाप 
एक ही राह के 
मुसाफिर बन कर 
न हम ही कुछ कह सके 
न तुम ही कुछ बोले 
चलो अब रहने दो 
 कुछ न कहो 
हम  
खामोशी से 
कर लेंगे गुफ्तगूं 
एक आदत हो गई है
 अज़नबी बने रहने की 
एक दूसरे में समाते हुए 
एक दूसरे से नज़रें चुराते हुए 
फिर भी कितना अच्छा होता गर 
सफर खत्म होने से पहले 
हम कहीं तो पहुंचते 
कभी तो मिलते 
पहली बार 
एक बार
सिर्फ  

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