जिस दिन से समझ आने लगे
खामोशियों की भाषा
उस दिन से विचार बन जाते हैं
हर पल के अटूट साथी
उग आते हैं उसके पंख
और भरने लगते हैं वे
अपनी स्वछंद उड़ान
शब्दों भरे विस्तृत आकाश में
कभी उतर जातें हैं चाँद पर
और करने लगते हैं उससे
आत्मीयता से भरी रूमानी बातें
सर्द रातों की ओस में
भीग जाते हैं कभी
और महकने लगते हैं
सीलन भरी सुवास से
शब्द बनकर बिखर जाते हैं तब
कागज़ के कोरे पन्नों पर और
ढल जाते हैं खामोशी से भरी हुई
एक कसकती हुई नज़्म में