Wednesday, July 14, 2010

सांझ का बादल
















सांझ का आकाश देखा
घना दीवाना बादल
सूरज की तपिश को ढकता
कुछ मुस्कुराता मिला

तेज हवा के झोंको से
बिखर सा गया तभी
कई टुकड़ों में बंटा
फिर कराहता लगा

पल पल रूप बदलते
उसकी फितरत और
कमज़ोर बंधन को देख
मैं हैरां थी

समय के साथ बदलती आकृतियॉ
सोच की सिलवटें बढ़ाती
मन के भाव पढ़ते
अपने ही अर्थ

अपने रूप को सवांरता
ढलती सूरज की लालिमा में
वो फिर बढ़ चला आगोश में लेने
अपने अंश को

आँखों से ओझल होता रूप
करवट न ले पाते अरमान
प्रकृति ने भी अस्वीकार किया
जैसे अव्यवस्था को

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