Monday, June 7, 2021

अभी ज़मीर में थोड़ी सी जान बाकी है

            
ज़मीर ज़िंदा रख, कबीर ज़िंदा रख 
सुल्तान भी बन जाये तो, दिल में फ़कीर ज़िंदा रख  (अज्ञात)
               
"उदासी, संताप, कष्टों से भरा अजीब समय आ गया है। कुर्सी पर मायूसी से बैठे 'क' ने गहरी उसाँस भरी।   
 
"समय परिवर्तनशील है। एक समान कभी नहीं रहता। इसमें अजीब क्या है?" दूसरी कुर्सी पर पसरे हुए 'ब' ने माथे पर सिलवटें डालते हुए हाथ को हवा में लहराया। 

"अरे! सो रहा है क्या तू, जाग, आंखें खोल। दुनिया भर में इस कोरोना ने तबाही मचा रखी है। हर तरफ त्राहि माम की कराह से तेरा दिल नहीं दुखता?" 'क' हतप्रभ है।   

"इसके अलावा भी बहुत कुछ किया जा सकता है। केवल रोते -बिसूरते रहने से, सरकार को, असुविधाओं को, डॉक्टरों आदि को कोसते रहने से क्या हल निकलेगा? ऐसा करने वाले स्वयं से सवाल पूछे। - इस महामारी की जंग में उनका क्या योगदान है? करने वाले बहुत कुछ कर रहे हैं। जो कुछ नहीं करते वे सिर्फ मिचमिच करते हैं, बकबकाते हैं। और तूने ही क्या कर दिया है? 'ब' आवेश में आकर अपनी कुर्सी छोड़ कर खड़ा हो गया और कमरे में तेजी से चहलकदमी करने लगा। 

"मैं क्या कर सकता हूँ? मुझे क्या करना चाहिए? क्या मैं इस संकट की घड़ी में किसी के कुछ काम आ सकता हूँ...." जैसे कई सवाल 'क' के ज़हन में तूफ़ान आए समुद्र की तरह हहराने लगे।  

आहिस्ता चल ऐ ज़िंदगी / कुछ क़र्ज़ चुकाने बाकी हैं,
कुछ दर्द मिटाने बाकी हैं / कुछ फ़र्ज़ निभाने बाकी हैं।  (गुलज़ार )


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