संजना शिखर के रोज़ के तानो से अब परेशान होने लगी
थी। संस्कारित, सुन्दर एवं सरल संजना सभी की सहमति से दो वर्ष पहले शिखर
की पत्नी बनकर उस घर में आई थी। शिखर
को एक बेटे का पिता बनाने और प्रोन्नति कर ऊंचे पद पर पँहुचाने का श्रेय
शिखर सहित सभी ने भाग्यवान संजना को ही दिया था।
बड़ा अफसर बना शिखर, आधुनिकता
के रंग में रंगता हुआ अब आए दिन संजना की तुलना अपनी सेक्रेटरी रोज़ा से करने लगा।
"थोड़ा स्टाईल लाओ संजू.....जोश, तेजी, चालाकी...आज के गला-काट प्रतिस्पर्धा में
संस्कारों और सरलता के कोई मायने नहीं हैं। अब रोज़ा को ही देखो....." उसकी अवहेलना
और रोजा की तारीफों की किताब कभी पूरी नहीं हो सकी थी।
एक दिन संजना ने रोज़ा
से पूछा था। " रोज़ा तुम कैसे संभाल लेती हो? एक बच्चा, दुर्घटना से चोटिल
अपाहिज हो चुका पति, उसकी बुजुर्ग बीमार माताजी, घर - बाहर सभी कुछ?"
"मजबूरी सब करवा
देती है दीदी। न चाहते हुए भी नौकरी बचाए रखने के लिए सब कुछ करना पड़ता
है।" आँखों में आंसू लाती हुई ये वही रोज़ा थी जो खूब मेकअप के साथ, आधुनिक लिबासों
में सजी……